आग जलनी चाहिए - दुष्यन्त कुमार

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए


हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए


सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

दिल के राज़ - चंद अल्फाज़


kehna bahut kuch chahte the unhe
Par zuba ne saath na diya
kabhi waqt ki khamoshi me khamosh rahe hum
toh kabhi unki khamoshi ne kuch kehne na diya.......

कुछ यह भी रँग रहा इन्तिज़ार का
आँख उठ गयी जिधर बस उधर देखते रहे
- असर

हाथों की लकीरों में ही जब न हो वजूद किसी का
जोड़ें भी तो जोड़ें तक़दीरें कोई कैसे?
- मुन्तज़िर

आप के पास ज़माना नहीं रहने देगा
आप से दूर मुहब्बत नहीं रहने देगी
- मुनव्वर राना

चाँदनी रात में वो छत पर टहलना तेरा,
ख़ुदा ख़ैर करे, जब दो-दो आफ़ताब रहे।।

मुहब्बत रँग लाती है जब दिल से दिल मिलते हैं ,
बड़ी मुश्किल तो यह है कि दिल मुश्किल से मिलते हैं

वादा ए वफ़ा का निभौं कैसे,
चाँद हूँ में तो दिन में नज़र आऊ कैसे
आँखो में बिखरा हुआ कोई पिछले पहर का ख्वाब हूँ मैं
पुकारे भी कोई तो अब इन आँखो में समाऊ कैसे

सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता,
निकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता
- अमीर मीनाई

राही तुम ठहरना बस दो पल

समय बहता जाता कल कल
राही तुम ठहरना बस दो पल।।

करनी तुम से कुछ बातें
अतीत बन गई मुलाक़ातें
उनको जीवंत करने दे दो ये पल।।

तुम मशरूफ़ अपनी चाह में
हम खड़े वहीं उसी राह में
ये सोच,शायद मेहरबा,हो कोई पल।।

ज़्यादा वक्त नहीं लेना तुम्हारा
बस पलकों में छुपाना अक्स तुम्हारा
जाने फिर कब तुम लौटो और कब ये पल।।

राही तुम ठहरना बस दो पल।।

कोई क्या करेगा प्रीत का अंकन

कोई क्या करेगा प्रीत का अंकन
मासूम हृदय का ये धड़कता स्पंदन।।

शब्दों का मोहताज नहीं नयनों से होती मनुहार
अपेक्षा कहाँ उपहारों की विश्वास करता सत्कार
माटी भी लगती सुरभित चंदन।।

चाह कुछ नहीं प्रेम से माँगे नहीं प्रतिदान
मन से मन जहाँ मिले सर्वप्रथम बलिहारी मान
आत्मपटल पर भावों का मंचन।।

मीरा बनी दीवानी कबीर हुआ मस्ताना
प्रेम रस में भीग-भीग समर्पण का रचा अफ़साना
पीतल नहीं हैं खरा कंचन।।

प्रतीक्षा के पल

जहाँ भी देखूँ तुम्हीं हो हर ओर
प्रतीक्षा के पल फिर कहाँ किस ओर।।

चेहरे पर अरुणाई-सी खिल जाती
धड़कनें स्पंदन बन मचल जाती
यादों की बारिश में नाचे मन मोर।।

कब तन्हा जब साथ तुम बन परछाई
साथ देख तुम्हारा खुदा भी माँगे मेरी तनहाई
मेरे हर क्षण को सजाया तुमने चित्त चोर।।

मेरे संग संग चाँद भी करता रहता इंतज़ार
तेरी हर बात को उससे कहा मैंने कितनी बार
फिर भी सुनता मुसकुराकर जब तक न होती भोर।।

तुम्हारे लिए हूँ मैं शायद बहुत दूर
तुम पर पास मेरे जितना आँखों के नूर
मेरी साँसों को बाँधे तेरे स्नेह की डोर।।

राही! रुकती नहीं जवानी

राही! रुकती नहीं जवानी
चलते चल अभिमानी!
मानी मंज़िल मात्र निशानी।।

छोड़ो जग के जाल तूफानी
क्यूँ दृग में है पानी ?
क्यूँ मंजरियों के बल गूँजे
कोकिल तेरी वाणी ?
मुक्त कण्ठ हैं मुक्त गगन है
तेरी आत्म कहानी।
राही! रुकती नहीं जवानी
चलते चल अभिमानी!
मानी मंज़िल मात्र निशानी।।

अपने उर में अपना घर हो
क्यूँ दर दर दीवानी ?
क्यूँ डेरों से प्रीत लगाती
पल दो पल वीरानी।
चाहों से चातक रातों में
मिलते नहीं सयानी।
ये हैं बातें बहुत पुरानी।।
चलते चल अभिमानी!
मानी मंज़िल मात्र निशानी।।

बहुत चले हैं बिना शिकायत

बहुत चले हैं बिना शिकायत हम मंज़िल के आश्वासन पर,
लेकिन हर मंज़िल को पीछे छोड़ रहे हैं चरण तुम्हारे,
तपे बहुत जलती लूओं से, रहें नीड़ में मन करता है,
पर नभ की उन्मुक्त पवन में खींच रहे हो प्राण हमारे॥

देख रहे दिन में भी सपने, कितनी सरज रहे हो चाहें,
सदा दिखाते ही रहते हो हमें साधना की तुम राहें,
खोली हाट शान्ति की जब से ग्राहक कितने बढ़ते जाते,
नहीं रहा अनजाना कोई सबका स्नेह अकारण पाते,
बिना शिकायत जुटे हुए हम हर सपना साकार बनाने,
फिर भी तोष नहीं धरती से तोड़ रहे अंबर के तारे॥

बचपन से ले अब तक कितने ग्रन्थों को हमने अवगाहा,
अपनी नाजुक अंगुलियों से जब तब कुछ लिखना भी चाहा,
समय-समय पर बाँधा मन के भावों को वाणी में हमने,
नहीं कहा विश्राम करो कुछ एक बार भी अब तक तुमने,
बहुत पढ़े हैं बिना शिकायत मन ही मन घबराते तुमसे,
कब होंगे उत्तीर्ण तुम्हारी नज़रों में पढ़ पढ़कर हारे॥

हर अशब्द भाव को बाँधा मधुर-नाद में हे संगायक!
मन की प्रत्यंचा पर सचमुच चढ़ा दिया संयम का सायक,
हर मानव की पीड़ा हरकर तुमने उसको सुधा पिलाई,
मुरझाते जीवन के उपवन की मायूसी दूर भगाई,
बहुत जगे हैं बिना शिकायत छोटी- बड़ी सभी रातों में,
बिना जगे कुछ सो लेने दो अब तो धरती के उजियारे!

कदम-कदम पर चौराहे हैं लक्ष्य स्वयं मंज़िल से भटका,
बियावान सागर के तट पर आकर प्राणों का रथ अटका,
जूझ रही है हर खतरे से विवश ज़िंदगी यह मानव की,
कुछ अजीब-सी अकुलाहट देखी जब से छाया दानव की,
डटे हुए हैं बिना शिकायत जीवन के हर समरांगण में,
किन्तु कहोगे कब तुम हमको खड़ी पास में विजय तुम्हारे॥

प्रेरणा की साँस भर देना

प्रेरणा की साँस भर देना थकन में,
चरण मंज़िल से नहीं अब रूठ पाए,
सींचते रहना नयी हर पौध को तुम,
पल्लवों फूलों फलों से लहलहाए॥

तोड़ सपनों को हमें दो सत्य का सुख,
अनकही मन की तुम्हें है ज्ञात सारी,
स्वाति बनकर दुःख को मोती बना दो,
भटकते अरमान दो छाया तुम्हारी,
चाँद सूरज से अधिक ले तेज अपना,
तिमिर- तट पर पूर्णिमा बन उतर आए॥

दीप हर आलोक से मंडित हुआ है,
मुस्कराते हैं गगन में नखत तारे,
एक मूरत गढ़ गया कोई मनोहर,
ज्योति- किरणों ने बिछाई हैं बहारें,
मुग्ध हैं ये प्राण इस अनुपम छटा पर,
मौन मन की धड़कनें कुछ गुनगुनाए॥

स्नेह संवर्षण मिला जब से तुम्हारा,
क्यारियाँ विश्वास की हैं शस्यश्यामल,
ज़िन्दगी को मोड़ दे तुमने बढ़ाए,
साधना की राह पर ये चरण कोमल,
जग निछावर पुण्य चरणों में तुम्हारे,
दीप ये विश्वास के तुमने जलाए॥

जाया न करो

केवल मन की मुक्त उड़ानें बन के तुम आया न करो।
सपनों! तुम केवल सपनों में आकर ही जाया न करो॥

सच के अभिमुख रहना चाहूँ, सच बनकर ही जीना चाहूँ।
इसीलिए स्मृति! बंधन बनकर जब चाहे छाया न करो॥
सपनों! तुम केवल सपनों में आकर ही जाया न करो॥

चिंतन चेतन में उतर आए, सार्थकता के क्षण दे जाए।
मात्र काल्पनिक दुनिया में तुम गोते ही खाया न करो॥
सपनों! तुम केवल सपनों में आकर ही जाया न करो॥

वर्तमान शुभ हो अतीत से, वर्तमान शुभ दे भावी को।
इसीलिए तुम वर्तमान से किञ्चित भी माया न करो॥
सपनों! तुम केवल सपनों में आकर ही जाया न करो॥

पल-पल जागृत सत्य सुदर्शन, पल-पल पाएँ अपना दर्शन।
भीतर का प्रभु भूल, गीत बाहर के ही गाया न करो॥
सपनों! तुम केवल सपनों में आकर ही जाया न करो॥

फूल पर हँस कर अटक मत

फूल पर हँस कर अटक मत, मंज़िलें मनुहार करती।
कंटकों की चुभन भी तो, सहज कुछ संस्कार भरती॥

सुख-मय स्वर्णिम साँझ-सवेरा झिगमिग करती रातें,
सपनीली संकल्पी दुनिया, सच करनी है बातें,
सुख-दुःख दोनों डगर सुहानी, मन को पुलकित करती,
कुन्ती का वरदान प्रभो! दुःख भक्ति, भाव की धरती,
जीवन कुंदनमयी कष्टों में, तप कर आब निखरती॥
फूल पर हँस कर अटक मत, मंज़िलें मनुहार करती॥

पौरुष की हो प्रखर निशानी, तेरी आत्म-कहानी,
रहे अनाविल सदा जवानी, मृदु मधु सत्य जुबानी,
तूफ़ां-तम के घेरों में फँस, कभी नहीं जो डरती,
आत्म-दीप विश्वासी अम्बर, सारी बाधा हरती,
फौलादी संकल्प साथ तो, नैया पार उतरती॥

फूल पर हँस कर अटक मत, मंज़िलें मनुहार करती॥
कंटकों की चुभन भी तो, सहज कुछ संस्कार भरती॥

शब्द के संसार को अब मौन होने दो।।

दीप जीवन का सजा है चाँदनी बन
ताप के अहसास को कुछ सघन होने दो।।
शब्द के संसार को अब मौन होने दो।।

अधर की मुस्कान आँखों की चमक को
सपन सा सुकुमार कोई बीज बोने दो ।।
शब्द के संसार को अब मौन होने दो।।

प्रभाती आनन्द मोती हास नूपुर
ज़िन्दगी के हार में जम के पिरोने दो ।।
शब्द के संसार को अब मौन होने दो।।

कड़कती बिजली बरसती बादरी को
शौर्य के संगान से अवसाद खोने दो ।।
शब्द के संसार को अब मौन होने दो।।

अपने को ही करूँ समर्पित, मैं अपना यह प्यार सखे!!

नेह पाश में बाँधे ऐसे, तोड़ चुकी मैं तार सखे!
अपने को ही करूँ समर्पित, मैं अपना यह प्यार सखे!!

आकर्षण आकाश निहारा, कहीं न कोई मिला किनारा
आगे से आगे पाने की प्यास, श्वास बन करे इशारा
शान्ति सदन की झलक मिलेगी, इससे कोसों पार सखे!
अपने को ही करूँ समर्पित, मैं अपना यह प्यार सखे!!

अन्तस्थल के नीलगगन में, आत्मसूर्य का सदा उजारा
जड़ता के उस पार पहुँचकर, ही पाया कुछ नया नज़ारा
क्षण क्षण चेतन दीप मिला है, आज मुझे उपहार सखे!
अपने को ही करूँ समर्पित, मैं अपना यह प्यार सखे!!

नाद ओम का चले अनाहत, कण्ठों में अर्हम् सुखकार
‘आनन्दो में वर्षति वर्षति’ हर पल कहता हृदय उदार
मुक्त गगन में मुक्त मनुज ने पाया नव अवतार सखे!
अपने को ही करूँ समर्पित, मैं अपना यह प्यार सखे!!

बना रहूँ सदा मनमीत ॥

नहीं चाहत, आऊँ कभी तुम्हारे ख़्वाबों में
या फिर तेरी मुस्कान से सुरभित बागों में
पर जब तन्हाई चुराने लगे तूमसे तूम्हारी प्रीत
साथ देने तुम्हारा, मैं खड़ा सदा मनमीत॥

नहीं हसरत, तू मुझे लिखें रोज़ डायरी में
या झलक मेरी दिखे तेरी किसी चर्चित शायरी में
पर जब कभी तेरे अश्क़ों से बहने लगे गीत
उसे थामने, मैं खड़ा सदा मनमीत॥

नहीं बुलाना भले अपनी कामयाबी के जश्न में
या माँगना दुआओं के लिए फैले दामन में
पर जब कभी राह मे तुम्हें न मिले जीत
हमराह बनने, मैं खड़ा सदा मनमीत ॥

यही आरज़ू, तेरे जीवन मे खुशियों का पारावार हो
और तेरे हर ग़म पर मेरा अधिकार हो
तेरे हर तमस को हर जाऊँ बन दीप प्रदीप्त
अपना अक़्स, उकेरे बिना ही बना रहूँ सदा मनमीत ॥

मेरी ख़ामोश अनाम चाहत की इतनी सी हैं रीत
बिन रिश्ते बिन बन्धन के बना रहूँ सदा मनमीत ॥

दूरी ज्यों ज्यों वक्त मुझसे बढ़ाता गया, रिश्ता हमारा और भी गहराता गया।।

दूरी ज्यों ज्यों वक्त मुझसे बढ़ाता गया ,
रिश्ता हमारा और भी गहराता गया ।।
उसका जुनून था, मेरी तन्हाई
और मैं हर पल मुस्कुराहट से सजाता गया ।।

चाँद के बहाने वक्त आया छत पर कितनी बार,
तृष्णा जगानी चाही धर धर विविध आकार
उसकी पिपासा थी, मेरी व्याकुलता
और मैं तन्मय बन रात रानी सम उसे महकाता गया ।।

संदेशा मेरा वक्त ने प्रिये तक न जाने दिया,
पैगाम उसका भी मेरे तक कब आने दिया
उसकी आस थी, मेरा एकाकीपन
और मैं खामोशियों को धड़कन का संगीत सुनाता गया ।।

मझधारों के बीच वक्त ने किया खड़ा,
राहों को फूलों से ज्यादा काटों से मढ़ा
उसका मद था, मेरा संघर्ष
और मैं सुधि के सुमरन में खुद को बहाता गया।।

क्या जीत लिखूँ क्या उसे हार लिखूँ



क्या जीत लिखूँ, क्या उसे हार लिखूँ


कैसे लफ़्जों में वो पहला प्यार लिखूँ॥


वो लम्हें अब भी जवाँ ज़हन में ,


जवाँ है वो सारे ही नज़ारे


फिर कैसे धड़कती धड़कनों को बीती बात लिखूँ॥




अरमानों ने खेली थी प्रीत से होली ,


अश्क़ भीगे उस रंग से आजतलक


फिर कैसे फीकी फीकी वो रंगीली फाग लिखूँ॥




साथ उसका नहीं हाथ की लकीरों में ,


मेरी ग़ज़लों की बन गया वो तक़दीर


फिर कैसे सुरीली मुहब्बत को तन्हाई की रात लिखूँ॥




दिल हार कर पाये कुछ पल सौगात में ,


उस हर पल में समाया आनन्द इबादत सा


फिर क्य़ूँ ख़ुद को मीरा उसको घनश्याम लिखूँ॥




जीत लिखूँ अब कोई हार लिखूँ ,


दुनिया से बचाकर अपना दिलनशी प्यार रखूँ॥