राही! रुकती नहीं जवानी

राही! रुकती नहीं जवानी
चलते चल अभिमानी!
मानी मंज़िल मात्र निशानी।।

छोड़ो जग के जाल तूफानी
क्यूँ दृग में है पानी ?
क्यूँ मंजरियों के बल गूँजे
कोकिल तेरी वाणी ?
मुक्त कण्ठ हैं मुक्त गगन है
तेरी आत्म कहानी।
राही! रुकती नहीं जवानी
चलते चल अभिमानी!
मानी मंज़िल मात्र निशानी।।

अपने उर में अपना घर हो
क्यूँ दर दर दीवानी ?
क्यूँ डेरों से प्रीत लगाती
पल दो पल वीरानी।
चाहों से चातक रातों में
मिलते नहीं सयानी।
ये हैं बातें बहुत पुरानी।।
चलते चल अभिमानी!
मानी मंज़िल मात्र निशानी।।

बहुत चले हैं बिना शिकायत

बहुत चले हैं बिना शिकायत हम मंज़िल के आश्वासन पर,
लेकिन हर मंज़िल को पीछे छोड़ रहे हैं चरण तुम्हारे,
तपे बहुत जलती लूओं से, रहें नीड़ में मन करता है,
पर नभ की उन्मुक्त पवन में खींच रहे हो प्राण हमारे॥

देख रहे दिन में भी सपने, कितनी सरज रहे हो चाहें,
सदा दिखाते ही रहते हो हमें साधना की तुम राहें,
खोली हाट शान्ति की जब से ग्राहक कितने बढ़ते जाते,
नहीं रहा अनजाना कोई सबका स्नेह अकारण पाते,
बिना शिकायत जुटे हुए हम हर सपना साकार बनाने,
फिर भी तोष नहीं धरती से तोड़ रहे अंबर के तारे॥

बचपन से ले अब तक कितने ग्रन्थों को हमने अवगाहा,
अपनी नाजुक अंगुलियों से जब तब कुछ लिखना भी चाहा,
समय-समय पर बाँधा मन के भावों को वाणी में हमने,
नहीं कहा विश्राम करो कुछ एक बार भी अब तक तुमने,
बहुत पढ़े हैं बिना शिकायत मन ही मन घबराते तुमसे,
कब होंगे उत्तीर्ण तुम्हारी नज़रों में पढ़ पढ़कर हारे॥

हर अशब्द भाव को बाँधा मधुर-नाद में हे संगायक!
मन की प्रत्यंचा पर सचमुच चढ़ा दिया संयम का सायक,
हर मानव की पीड़ा हरकर तुमने उसको सुधा पिलाई,
मुरझाते जीवन के उपवन की मायूसी दूर भगाई,
बहुत जगे हैं बिना शिकायत छोटी- बड़ी सभी रातों में,
बिना जगे कुछ सो लेने दो अब तो धरती के उजियारे!

कदम-कदम पर चौराहे हैं लक्ष्य स्वयं मंज़िल से भटका,
बियावान सागर के तट पर आकर प्राणों का रथ अटका,
जूझ रही है हर खतरे से विवश ज़िंदगी यह मानव की,
कुछ अजीब-सी अकुलाहट देखी जब से छाया दानव की,
डटे हुए हैं बिना शिकायत जीवन के हर समरांगण में,
किन्तु कहोगे कब तुम हमको खड़ी पास में विजय तुम्हारे॥

प्रेरणा की साँस भर देना

प्रेरणा की साँस भर देना थकन में,
चरण मंज़िल से नहीं अब रूठ पाए,
सींचते रहना नयी हर पौध को तुम,
पल्लवों फूलों फलों से लहलहाए॥

तोड़ सपनों को हमें दो सत्य का सुख,
अनकही मन की तुम्हें है ज्ञात सारी,
स्वाति बनकर दुःख को मोती बना दो,
भटकते अरमान दो छाया तुम्हारी,
चाँद सूरज से अधिक ले तेज अपना,
तिमिर- तट पर पूर्णिमा बन उतर आए॥

दीप हर आलोक से मंडित हुआ है,
मुस्कराते हैं गगन में नखत तारे,
एक मूरत गढ़ गया कोई मनोहर,
ज्योति- किरणों ने बिछाई हैं बहारें,
मुग्ध हैं ये प्राण इस अनुपम छटा पर,
मौन मन की धड़कनें कुछ गुनगुनाए॥

स्नेह संवर्षण मिला जब से तुम्हारा,
क्यारियाँ विश्वास की हैं शस्यश्यामल,
ज़िन्दगी को मोड़ दे तुमने बढ़ाए,
साधना की राह पर ये चरण कोमल,
जग निछावर पुण्य चरणों में तुम्हारे,
दीप ये विश्वास के तुमने जलाए॥

जाया न करो

केवल मन की मुक्त उड़ानें बन के तुम आया न करो।
सपनों! तुम केवल सपनों में आकर ही जाया न करो॥

सच के अभिमुख रहना चाहूँ, सच बनकर ही जीना चाहूँ।
इसीलिए स्मृति! बंधन बनकर जब चाहे छाया न करो॥
सपनों! तुम केवल सपनों में आकर ही जाया न करो॥

चिंतन चेतन में उतर आए, सार्थकता के क्षण दे जाए।
मात्र काल्पनिक दुनिया में तुम गोते ही खाया न करो॥
सपनों! तुम केवल सपनों में आकर ही जाया न करो॥

वर्तमान शुभ हो अतीत से, वर्तमान शुभ दे भावी को।
इसीलिए तुम वर्तमान से किञ्चित भी माया न करो॥
सपनों! तुम केवल सपनों में आकर ही जाया न करो॥

पल-पल जागृत सत्य सुदर्शन, पल-पल पाएँ अपना दर्शन।
भीतर का प्रभु भूल, गीत बाहर के ही गाया न करो॥
सपनों! तुम केवल सपनों में आकर ही जाया न करो॥

फूल पर हँस कर अटक मत

फूल पर हँस कर अटक मत, मंज़िलें मनुहार करती।
कंटकों की चुभन भी तो, सहज कुछ संस्कार भरती॥

सुख-मय स्वर्णिम साँझ-सवेरा झिगमिग करती रातें,
सपनीली संकल्पी दुनिया, सच करनी है बातें,
सुख-दुःख दोनों डगर सुहानी, मन को पुलकित करती,
कुन्ती का वरदान प्रभो! दुःख भक्ति, भाव की धरती,
जीवन कुंदनमयी कष्टों में, तप कर आब निखरती॥
फूल पर हँस कर अटक मत, मंज़िलें मनुहार करती॥

पौरुष की हो प्रखर निशानी, तेरी आत्म-कहानी,
रहे अनाविल सदा जवानी, मृदु मधु सत्य जुबानी,
तूफ़ां-तम के घेरों में फँस, कभी नहीं जो डरती,
आत्म-दीप विश्वासी अम्बर, सारी बाधा हरती,
फौलादी संकल्प साथ तो, नैया पार उतरती॥

फूल पर हँस कर अटक मत, मंज़िलें मनुहार करती॥
कंटकों की चुभन भी तो, सहज कुछ संस्कार भरती॥

शब्द के संसार को अब मौन होने दो।।

दीप जीवन का सजा है चाँदनी बन
ताप के अहसास को कुछ सघन होने दो।।
शब्द के संसार को अब मौन होने दो।।

अधर की मुस्कान आँखों की चमक को
सपन सा सुकुमार कोई बीज बोने दो ।।
शब्द के संसार को अब मौन होने दो।।

प्रभाती आनन्द मोती हास नूपुर
ज़िन्दगी के हार में जम के पिरोने दो ।।
शब्द के संसार को अब मौन होने दो।।

कड़कती बिजली बरसती बादरी को
शौर्य के संगान से अवसाद खोने दो ।।
शब्द के संसार को अब मौन होने दो।।