अपने को ही करूँ समर्पित, मैं अपना यह प्यार सखे!!

नेह पाश में बाँधे ऐसे, तोड़ चुकी मैं तार सखे!
अपने को ही करूँ समर्पित, मैं अपना यह प्यार सखे!!

आकर्षण आकाश निहारा, कहीं न कोई मिला किनारा
आगे से आगे पाने की प्यास, श्वास बन करे इशारा
शान्ति सदन की झलक मिलेगी, इससे कोसों पार सखे!
अपने को ही करूँ समर्पित, मैं अपना यह प्यार सखे!!

अन्तस्थल के नीलगगन में, आत्मसूर्य का सदा उजारा
जड़ता के उस पार पहुँचकर, ही पाया कुछ नया नज़ारा
क्षण क्षण चेतन दीप मिला है, आज मुझे उपहार सखे!
अपने को ही करूँ समर्पित, मैं अपना यह प्यार सखे!!

नाद ओम का चले अनाहत, कण्ठों में अर्हम् सुखकार
‘आनन्दो में वर्षति वर्षति’ हर पल कहता हृदय उदार
मुक्त गगन में मुक्त मनुज ने पाया नव अवतार सखे!
अपने को ही करूँ समर्पित, मैं अपना यह प्यार सखे!!

बना रहूँ सदा मनमीत ॥

नहीं चाहत, आऊँ कभी तुम्हारे ख़्वाबों में
या फिर तेरी मुस्कान से सुरभित बागों में
पर जब तन्हाई चुराने लगे तूमसे तूम्हारी प्रीत
साथ देने तुम्हारा, मैं खड़ा सदा मनमीत॥

नहीं हसरत, तू मुझे लिखें रोज़ डायरी में
या झलक मेरी दिखे तेरी किसी चर्चित शायरी में
पर जब कभी तेरे अश्क़ों से बहने लगे गीत
उसे थामने, मैं खड़ा सदा मनमीत॥

नहीं बुलाना भले अपनी कामयाबी के जश्न में
या माँगना दुआओं के लिए फैले दामन में
पर जब कभी राह मे तुम्हें न मिले जीत
हमराह बनने, मैं खड़ा सदा मनमीत ॥

यही आरज़ू, तेरे जीवन मे खुशियों का पारावार हो
और तेरे हर ग़म पर मेरा अधिकार हो
तेरे हर तमस को हर जाऊँ बन दीप प्रदीप्त
अपना अक़्स, उकेरे बिना ही बना रहूँ सदा मनमीत ॥

मेरी ख़ामोश अनाम चाहत की इतनी सी हैं रीत
बिन रिश्ते बिन बन्धन के बना रहूँ सदा मनमीत ॥

दूरी ज्यों ज्यों वक्त मुझसे बढ़ाता गया, रिश्ता हमारा और भी गहराता गया।।

दूरी ज्यों ज्यों वक्त मुझसे बढ़ाता गया ,
रिश्ता हमारा और भी गहराता गया ।।
उसका जुनून था, मेरी तन्हाई
और मैं हर पल मुस्कुराहट से सजाता गया ।।

चाँद के बहाने वक्त आया छत पर कितनी बार,
तृष्णा जगानी चाही धर धर विविध आकार
उसकी पिपासा थी, मेरी व्याकुलता
और मैं तन्मय बन रात रानी सम उसे महकाता गया ।।

संदेशा मेरा वक्त ने प्रिये तक न जाने दिया,
पैगाम उसका भी मेरे तक कब आने दिया
उसकी आस थी, मेरा एकाकीपन
और मैं खामोशियों को धड़कन का संगीत सुनाता गया ।।

मझधारों के बीच वक्त ने किया खड़ा,
राहों को फूलों से ज्यादा काटों से मढ़ा
उसका मद था, मेरा संघर्ष
और मैं सुधि के सुमरन में खुद को बहाता गया।।

क्या जीत लिखूँ क्या उसे हार लिखूँ



क्या जीत लिखूँ, क्या उसे हार लिखूँ


कैसे लफ़्जों में वो पहला प्यार लिखूँ॥


वो लम्हें अब भी जवाँ ज़हन में ,


जवाँ है वो सारे ही नज़ारे


फिर कैसे धड़कती धड़कनों को बीती बात लिखूँ॥




अरमानों ने खेली थी प्रीत से होली ,


अश्क़ भीगे उस रंग से आजतलक


फिर कैसे फीकी फीकी वो रंगीली फाग लिखूँ॥




साथ उसका नहीं हाथ की लकीरों में ,


मेरी ग़ज़लों की बन गया वो तक़दीर


फिर कैसे सुरीली मुहब्बत को तन्हाई की रात लिखूँ॥




दिल हार कर पाये कुछ पल सौगात में ,


उस हर पल में समाया आनन्द इबादत सा


फिर क्य़ूँ ख़ुद को मीरा उसको घनश्याम लिखूँ॥




जीत लिखूँ अब कोई हार लिखूँ ,


दुनिया से बचाकर अपना दिलनशी प्यार रखूँ॥