जिक्र उसका आज भी, मेरे होठों पर आता क्यों हैं,
पलकों की हलचल में, अक्स उसका लहराता क्यों हैं,
बह गए कितने ही पतझड वक्त की साजिश में
पर मन उसकी आरजू से, आज भी बहल जाता क्यों है ॥
पलकों की हलचल में, अक्स उसका लहराता क्यों हैं,
बह गए कितने ही पतझड वक्त की साजिश में
पर मन उसकी आरजू से, आज भी बहल जाता क्यों है ॥
हर हिचकी पे एक ही नाम जहन को सताता क्यों है,
हर शायरी में मेरी , उसका ख्याल पिघल आता क्यों है,
पर पहले के तरह, दिल आज भी रूठ जाता क्यों हैं ॥
उसकी कुछ पल के वफाओ में मेरा जीवन समता क्यों है,
दर्द से उम्र भर की यारी, जानबूझ कर निभाता क्यों है
कुछ तो नशा होगा इस तन्हा मुहब्बत में
उसका नाम सुन दिल आज भी झूम जाता क्यों है ॥
1 टिप्पणी:
ख़ूबसूरत रचना है. "बह गए कितने ही पतझड वक्त की साजिश में" बहुत उम्दा ख़्याल है पतझड़ का बह जाना. और "तनहा मुहब्बत का नशा", बहुत ही उम्दा. बधाई इस अच्छी प्रस्तुति के लिये.
एक टिप्पणी भेजें